
न्यूज़ टुडे टीम अपडेट : पटना/ बिहार :
जीतनराम मांझी और श्याम रजक के करवट बदलते ही बिहार की राजनीति में उथल-पुथल का एक प्रतीक्षित दौर पूरा हो गया। अब दूसरे दौर का इंतजार है। फिलहाल, गठबंधन की राजनीति में दोनों ओर के नए माहौल में नए तरीके से नई बिसात बिछाने की तैयारी है। लोकसभा चुनाव से पहले ही पाला बदलकर मांझी महागठबंधन के हो गए थे। अब उनके फिर पलटने से कांग्रेस समेत अन्य घटक दलों को थोड़ा सुकून महसूस होगा। सीटों की सूची और अपेक्षाएं थोड़ी लंबी हो जाएंगी। राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन भी बेअसर नहीं रहेगा। अगर मांझी शामिल हो जाते हैं तो नए सहयोगी के जुड़ जाने से राजग में भी सीटों का फार्मूला प्रभावित होगा। लोक जनशक्ति पार्टी के अगले कदम पर भी सबकी नजर रहेगी।
चुनाव समय पर कराने और कोरोना के चलते आगे टालने के मुद्दे पर विभाजित राजनीतिक दलों की प्रतिद्वंद्विता का एक अध्याय लगभग खत्म हो गया। निर्वाचन आयोग की अबतक की तैयारियों ने साफ कर दिया है कि चुनाव अपने समय पर ही होंगे। विभिन्न राजनीतिक दलों को भी इसका अहसास हो गया है। इसलिए सबने अपने खेमे की संभावनाओं में जान डालने की कोशिश शुरू कर दी है। ताजा दल-बदल और पाला बदल के खेल को इसी का हिस्सा माना जा सकता है। महागठबंधन सबसे बड़े घटक दल राष्ट्रीय जनता दल के लिए मांझी अप्रासंगिक हो गए थे। तभी उनकी मांगों और जिद को तेजस्वी यादव ने तरजीह नहीं दी। लगातार नजरअंदाज किया। कांग्रेस का अड़ना भी काम नहीं आया। जाहिर है, मांझी से फ्री होकर तेजस्वी अब महागठबंधन के विस्तार एवं सीट बंटवारे के काम को आगे बढ़ा सकते हैं।
जीतनराम मांझी के इधर-उधर होने से बिहार की राजनीति पर तात्कालिक असर की पड़ताल शुरू कर दी गई है। मांझी के हटने से महागठबंधन के सहयोगी दलों की संख्या चार रह गई है। आरजेडी, कांग्रेस, राष्ट्रीय लोक समता पार्टी और मुकेश सहनी की विकासशील इंसान पार्टी। लोकसभा की हार से सबक लेते हुए इस बार वामदलों को भी साथ लाने की कवायद चल रही है। मांझी ने उनके रास्ते को सीधा और आसान कर दिया है। हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा के हिस्से की संभावित सीटों को भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी व मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी और माले की झोली में डालकर उन्हें साधा जा सकता है। माले के पक्ष में आरजेडी तो पहले से ही है। इसीलिए लोकसभा चुनाव में तेजस्वी यादव ने आरजेडी के कोटे की 20 सीटों में से एक माले को समर्पित कर दिया था। अबकी सीपीआइ-सीपीएम को भी साथ लाना है।
मांझी ने अगर एनडीए का दामन थामा तो घटक दलों की संख्या यहां भी तीन से बढ़कर चार हो जाएगी। किसी भी नेता की मजबूती और कमजोरी का आकलन उसके व्यक्तित्व, माहौल, सामाजिक पकड़, राजनीतिक समीकरण और वोट ट्रांसफर कराने की क्षमता के आधार पर किया जाता है। फिलहाल मांझी को उसी तराजू पर नापा-तौला जा रहा है। इस प्रयास में दूसरे पलड़े पर एलजेपी के संस्थापक रामविलास पासवान को भी खड़ा किया जा रहा है। पासवान बड़े कद-पद के नेता हैं, पर मांझी को भी कम करके नहीं आंका जा सकता। नीतीश कुमार ने उन्हें बिहार में सियासत के शीर्ष पर पहुंचाकर एक ऊंचाई तो दे ही दी है। अपनी बिरादरी का वोट अगर ट्रांसफर करा सके तो मांझी अपनी नाव को मंझधार से बाहर निकालने में सफल भी हो सकते हैं।