
न्यूज़ टुडे एक्सक्लूसिव :
डा. राजेश अस्थाना, एडिटर इन चीफ, न्यूज़ टुडे मीडिया समूह :
बतौर राजनेता अटल बिहारी वाजपेयी हर मुमकिन ऊंचाई तक पहुंचे, वे प्रधानमंत्री के तौर पर अपना कार्यकाल पूरा करने वाले पहले ग़ैर-कांग्रेसी प्रधानमंत्री रहे. अटल बिहारी वाजपेयी जीवित होते तो 96 साल के हो गए होते. हालांकि वे अब नहीं हैं, लेकिन उनकी मौजूदगी भारतीय राजनीति में हमेशा रहेगी.
16 अगस्त, 2018 को वाजपेयी का निधन हो गया था. कभी महज़ दो सीटों वाली पार्टी रही भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व में सरकार बनाने की उपलब्धि केवल अटल बिहारी वाजपेयी की भारतीय राजनीति में सहज स्वीकार्यता के बूते की बात थी, जिसे भांपते हुए राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ को भी लालकृष्ण आडवाणी को पीछे रखकर वाजपेयी को आगे बढ़ाना पड़ा था.
वाजपेयी तीन बार भारत के प्रधानमंत्री रहे, पहले 13 दिन तक, फिर 13 महीने तक और उसके बाद 1999 से 2004 तक का कार्यकाल उन्होंने पूरा किया. इस दौरान उन्होंने ये साबित किया कि देश में गठबंधन सरकारों को भी सफलता से चलाया जा सकता है. ज़ाहिर है कि जब वाजपेयी स्थिर सरकार के मुखिया बने तो उन्होंने ऐसे कई बड़े फ़ैसले लिए जिसने भारत की राजनीति को हमेशा के लिए बदल दिया, ये वाजपेयी की कुशलता ही कही जाएगी कि उन्होंने एक तरह से दक्षिणपंथ की राजनीति को भारतीय जनमानस में इस तरह रचा बसा दिया जिसके चलते एक दशक बाद भारतीय जनता पार्टी ने वो बहुमत हासिल कर दिखाया जिसकी एक समय में कल्पना भी नहीं की जाती थी. एक नज़र बतौर प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के उन फ़ैसलों की जिसका असर लंबे समय तक भारतीय राजनीति में नज़र आता रहेगा.
प्रधानमंत्री के तौर पर वाजपेयी के जिस काम को सबसे ज़्यादा अहम माना जा सकता है वो सड़कों के माध्यम से भारत को जोड़ने की योजना है. उन्होंने चेन्नई, कोलकाता, दिल्ली और मुंबई को जोड़ने के लिए स्वर्णिम चतुर्भुज सड़क परियोजना लागू की. साथ ही ग्रामीण अंचलों के लिए प्रधानमंत्री ग्रामीण सड़क योजना लागू की. उनके इस फ़ैसले ने देश के आर्थिक विकास को रफ़्तार दी. हालांकि, उनकी सरकार के दौरान ही भारतीय स्तर पर नदियों को जोड़ने की योजना का ख़ाका भी बना था. उन्होंने 2003 में सुरेश प्रभु की अध्यक्षता में एक टास्क फोर्स का गठन किया था. हालांकि, जल संरक्षण के साथ-साथ पर्यावरण कार्यकर्ताओं ने काफ़ी विरोध किया था.
वाजपेयी के प्रधानमंत्रित्व काल के दौरान देश में निजीकरण को उस रफ़्तार तक बढ़ाया गया जहां से वापसी की कोई गुंजाइश नहीं बची. वाजपेयी की इस रणनीति के पीछे कॉर्पोरेट समूहों की बीजेपी से सांठगांठ रही होगी हालांकि उस दौर में इसे उनके नज़दीकी रहे प्रमोद महाजन की सोच का असर भी माना गया था. वाजपेयी ने 1999 में अपनी सरकार में विनिवेश मंत्रालय के तौर पर एक अनोखा मंत्रालय का गठन किया था. इसके मंत्री अरुण शौरी बनाए गए थे. शौरी के मंत्रालय ने वाजपेयी जी के नेतृत्व में भारत एल्यूमिनियम कंपनी (बाल्को), हिंदुस्तान ज़िंक, इंडियन पेट्रोकेमिकल्स कॉर्पोरेशन लिमिटेड और विदेश संचार निगम लिमिटेड जैसी सरकारी कंपनियों को बेचने की प्रक्रिया शुरू की थी.
इतना ही नहीं वाजपेयी से पहले देश में बीमा का क्षेत्र सरकारी कंपनियों के हवाले ही था, लेकिन वाजपेयी सरकार ने इसमें विदेशी निवेश के रास्ते खोले. उन्होंने बीमा कंपनियों में विदेशी निवेश की सीमा को 26 फ़ीसदी तक किया था, जिसे 2015 में नरेंद्र मोदी सरकार ने बढ़ाकर 49 फ़ीसदी तक कर दिया. इन कंपनियों के निजीकरण से नियुक्तियों में आरक्षण की बध्यता भी ख़त्म हो गई. बतौर प्रधानमंत्री वाजपेयी के निजीकरण को बढ़ाने वाले इस क़दम की आज भी ख़ूब आलोचना होती है.
आलोचना करने वालों के मुताबिक़, निजीकरण से कंपनियों ने मुनाफ़े को ही अपना उद्देश्य बना लिया. हालांकि, बाज़ार के दख़ल के हरकारे लगाने वालों के लिए इससे लोगों को बेहतर सुविधाएं मिलनी शुरू हुईं लेकिन इन सेक्टर में काम करने वालों के लिए ये बदलाव मुफ़ीद नहीं रहा. ध्यान रहे सरकारी कर्मचारियों के लिए पेंशन की स्कीम को वाजपेयी सरकार ने ही ख़त्म किया था. लेकिन उन्होंने जनप्रतिनिधियों को मिलने वाले पेंशन की सुविधा को नहीं बदला था.
भारत में संचार क्रांति का जनक भले राजीव गांधी और उनके नियुक्त किए गए सैम पित्रोदा को माना जाता हो लेकिन उसे आम लोगों तक पहुंचाने का काम वाजपेयी सरकार ने ही किया था. 1999 में वाजपेयी ने भारत संचार निगम लिमिटेड (बीएसएनएल) के एकाधिकार को ख़त्म करते हुए नई टेलिकॉम नीति लागू की. इसके पीछे भी प्रमोद महाजन का दिमाग़ बताया गया. रेवेन्यू शेयरिंग मॉडल के ज़रिए लोगों को सस्ती दरों पर फ़ोन कॉल्स करने का फ़ायदा मिला और बाद में सस्ती मोबाइल फ़ोन का दौर शुरू हुआ. हालांकि नई टेलिकॉम नीति के तहत वो दुनिया खुली थी जिसका एक रूप 2जी घोटाले के रूप में यूपीए कार्यकाल में सामने आया था.