
न्यूज़ टुडे टीम अपडेट : बक्सर/ बिहार :
बिहार के बक्सर जिले में महादेवा घाट के पास बीते दिनों गंगा में बड़ी संख्या में शव मिलने को कोरोना से जोड़कर खासा दुष्प्रचार किया गया, लेकिन स्थानीय निवासियों का कहना है कि गंगा में शव मिलना कोई नई बात नहीं है। यहां गांवों में दशकों से लोग शवों को या तो दफनाते रहे हैं या फिर गंगा में प्रवाहित करते रहे हैं। यहीं एक ग्राम पंचायत है गंगौली, जिसकी आबादी करीब 20 हजार है। वर्षों पहले यहां भोजपुर मठिया से एक साधु आए। नाम था हरेराम ब्रह्मचारी बाबा। आसपास के गांवों के कई परिवार उनके शिष्य बन गए। बाबा की अलग सोच थी। उन्होंने अपने शिष्यों को समझाया कि निष्प्राण शरीर को गंगा में बहा दिया जाए, तो मरने के बाद भी वह काम आ जाता है। जल के जीव अपनी भूख मिटा लेते हैं। तब से इस गांव के कई परिवार गंगा में शव प्रवाह करने की परंपरा निभा रहे हैं।
शवों को गंगा में बहाने की पुरानी परंपरा
यहां की पंचायत समिति के पूर्व सदस्य विश्राम यादव को आश्चर्य हुआ था, जब गंगा में बहकर आ रहे शवों को कोरोना से बड़ी संख्या में मौत से जोड़ा गया। कुछ लोगों ने गरीबी की वजह से दाह संस्कार की लकड़ी की व्यवस्था नहीं हो पाने की मजबूरी का दुष्प्रचार भी किया। इसी गांव के भरत मिश्रा अपने बुजुर्गों के हवाले से शवों को गंगा में बहाने की परंपरा के बारे में विस्तार से बताते हैं।
पूरे देश में हुई मौतें, केवल यहीं क्यों बहाया?
हरेराम ब्रह्मचारी की कहानी भी उन्हें अपने बुजुर्गो से ही मालूम है। वह साफ कहते हैं कि कोरोनों की वजह से पहले से ही समाज कष्ट और आशंका में जी रहा है। ऐसे में गंगा में बड़ी संख्या में शव मिलने पर कोरोना से मौत से जुड़ी खबरें सामने आईं तो पटना से दिल्ली तक दुख और आश्चर्य का माहौल बना, लेकिन हमारा इलाका सच्चाई जानता है। लोग गंगा को मोक्षदायिनी मानते हैं। कोरोना से मौतों को छिपाने या मजबूरी में शव को पानी में प्रवाहित करने की बात ठीक होती, तो फिर अन्य नदियों में शव क्यों नहीं मिले? क्या यह मजबूरी सिर्फ उत्तर प्रदेश के गाजीपुर और बिहार के बक्सर के लोगों के सामने थी? पूरे देश में कोरोना से मौत हुईं और गरीबी-मजबूरी तो हर जगह है।
इस इलाके में जल समाधि की पुरानी परंपरा
गंगा के उस पार है गाजीपुर और इस पार है बक्सर। इस पार के लोग बताते हैं कि गाजीपुर, शेरपुर और गहमर में जल समाधि की परंपरा तो बहुत पुरानी है। इस पार यानी बक्सर जिले के दर्जनों गांव जैसे नरबतपुर, केशोपुर, बड़का गांव में भी शव की जल समाधि की परंपरा है। बक्सर में 50 किलोमीटर तक गंगा के किनारे गांव बसे हुए हैं। पीढ़ी-दर-पीढ़ी जल समाधि के पीछे अपने-अपने कारण हैं। गांव में कोई परंपरा शुरू हुई तो वैसा ही होता रहता है।
गांव-परिवार तय करते हैं अंतिम संस्कार
चौसा के श्मशान घाट के कर्मकांडी महाब्राह्मण शिवदयाल पाण्डेय कहते हैं कि जल समाधि गांव और परिवार की परंपरा व विश्वास से जुड़ा विषय है। शव पर मिट्टी की गगरी बांधकर प्रवाहित करने की परंपरा पुरानी है। ऐसा इसलिए किया जाता है कि गगरी में पानी भरे और वह शव को लेकर डूब जाए। अंतिम संस्कार ऐसी प्रक्रिया है कि परिवार या गांव जैसा तय करता है, वैसा ही नियम बन जाता है। अब भी कुछ परिवार श्मशान घाट आते हैं तो मुखाग्नि देने की प्रक्रिया पूरी करने के बाद शव प्रवाहित करने को कहते हैं। ऐसे ही शव गंगा में दिख जाते हैं। यहां से लेकर गाजीपुर तक कई गांवों में ऐसा होता है। चौसा के पूर्व जिला पार्षद डा. मनोज यादव कहते हैं कि गर्मी का मौसम आते ही गंगा की धारा पतली हो जाती है। बहाव धीमा रहता है, तब शव किनारे लग जाते हैं। पहले भी ऐसा होता था। कोरोना के समय तो सिर्फ शोर मचाया जा रहा है।
सर्प दंश से मौत पर दाह संस्कार से परहेज
भागवत कथा वाचक आचार्य रामनाथ ओझा बताते हैं कि हमारे इलाके में भी सर्प दंश या रहस्यमय मौत होने पर परिवार के लोग शव को केला के थम्ब बांधकर गंगा में प्रवाहित करते हैं। केले के थम्ब में शरीर को इसलिए बांधा जाता है कि वह पानी की सतह पर बहता रहे। आचार्य ने बताया कि हमारी मान्यताओं में साधु और ब्रह्मचारी के शरीर का भी दाह संस्कार नहीं किया जाता है। जिनके अपने मठ होते हैं, उन्हें वहीं समाधि दी जाती है। जिनके मठ नहीं हैं, उन्हें गंगा में जल समाधि दी जाती है।