न्यूज़ टुडे एक्सक्लूसिव :
डा. राजेश अस्थाना, एडिटर इन चीफ, न्यूज़ टुडे मीडिया समूह :
बिहार विधानसभा चुनाव परिणाम के बाद जदयू के कार्यकर्ता ,नेता और विधायक का मनोबल बना रहे इसके लिए नीतीश कुमार ने अभी तक जो भी कदम उठाये हैं उसका असर होता नहीं दिख रहा है और धीरे धीरे पार्टी में अंतर्कलह चरम पर पहुंचता जा रहा है ऐसी स्थिति में किसी भी समय पार्टी में बड़ी टूट हो जाये तो कोई बड़ी बात नहीं होगी।
विधानसभा चुनाव परिणाम के बाद पार्टी के आम कार्यकर्ता से लेकर बड़े नेताओं में इस बात का लेकर गुस्सा था कि जदयू के इस हार के लिए बीजेपी जिम्मेवार है एलजेपी तो सिर्फ मोहरा है। इस गुस्से को नीतीश भाप चुके थे और इस गुस्से से पार्टी को कैसे बाहर निकाले इसको लेकर चुनाव परिणाम आने के दिन से ही नीतीश कुमार रणनीति बनाने लगे थे।
1— सरकार में शामिल नहीं होने पर पार्टी में टूट का खतरा था
चुनाव में जदयू की करारी हार के पीछे बीजेपी के होने के बावजूद नीतीश कुमार सीएम बनने के लिए इसलिए तैयार हो गये कि अगर वो सीएम नहीं बनते तो पार्टी के अधिकांश विधायक पार्टी छोड़ सकते थे क्यों कि जदयू का कोई भी विधायक तुरंत चुनाव में जाने को तैयार था। वही नीतीश कुमार का खुद का ग्राफ इतना गिर चुका था कि इनके चाहने के बावजूद विधायक और पार्टी इनके साथ खड़ी नहीं रहती इसका आभास नीतीश को हो चुका था।
2–नीतीश सुशासन के सहारे अपनी वापसी की कोशिश शुरु किये
नीतीश कुमार सीएम का शपथ लेने के दूसरे दिन से ही 2005 के स्टाइल में काम करना शुरू कर दिये।इसके लिए सबसे पहले वो मीडिया से जो दूरी बना लिये थे उसको पाटना शुरु किये ,साथ ही कानून व्यवस्था को लेकर जो सवाल खड़े हो रहे थे उसको पटरी पर लाने के लिए खुद कमान अपने हाथ में ले लिए।
लेकिन इतना साहस नहीं जुटा पाये कि अभयानंद जैसे तेवर वाले अधिकारी को डीजीपी बना सके वही गृह विभाग के सचिव को लेकर को जो प्रशासनिक कसरत कि गयी एक साथ दो दो गृह सचिव और उसके ऊपर प्रधान सचिव गृह अमीर सुबहानी।
फिर दीपक कुमार सीएम का प्रधान सचिव बनाये गये संदेश ये देने कि कोशिश हुई कि चंचल कुमार का कद छोटा कर दिया गया है वजह इस बार के विधानसभा चुनाव में टिकट वितरण में चंचल कुमार मुख्य भूमिका रही थी फिर राजद को छोड़कर बीजेपी के साथ सरकार बनाएं इसके ये बड़े पैरोकार थे। साथ ही चंचल कुमार के रवैये की वजह से जदयू के अधिकांश विधायक और मंत्री नाराज थे इसी नाराजगी को कम करने के लिए नीतीश कुमार दीपक कुमार को मुख्य सचिव बना कर यह संदेश देने की कोशिश किये लेकिन वो भी ज्यादा दिनों तक नहीं चला फिर संजीव हंस जल संसाधन विभाग में वापसी जैसे कई ऐसे प्रशासनिक निर्णय लिये गये इससे ये संदेश अधिकारियों के बीच भी गया कि नीतीश कुमार में पहली बात नहीं रही और इसका असर कामकाज पर पड़ा।
3–आरसीपी को राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाये
नीतीश कुमार विधानसभा चुनाव के परिणाम के बाद अपने कार्यकर्ताओं और समर्थकों में ये संदेश देना चाहते थे कि मैं पद त्याग कर सकता हूं जैसे 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद पद छोड़ कर एक माहौल बनाने की कोशिश किए थे। लेकिन इस बार सीएम पद छोड़ने के बाद वापसी की कोई उम्मीद नहीं दिख रही थी वही हार की जिम्मेवारी लेते हुए पद छोड़ कर संदेश भी देना चाहते थे।
ऐसे में उन्होंने एक तीर से दो निशाना साधने की कोशिश किये और इसके लिए उन्होंने आरसीपी का चयन किया क्यों कि पार्टी की हार के लिए पार्टी के अंदर जो खेमा बीजेपी के रवैये से नाराज थे उन्हें यह संदेश दिया गया कि बीजेपी के साथ गठबंधन के लिए सबसे अधिक लॉबिंग आरसीपी कर रहे थे उन्हें ही पार्टी का कमान सौंप दिया जाये और अब वो जवाब दे कि बीजेपी के साथ किस तरीके से रिश्ता रखना है।
दूसरा आरसीपी शरद यादव कभी नहीं हो सकते, और इसी सोच के तहत नीतीश कुमार आरसीपी को पार्टी का कमान दे दिए लेकिन आरसीपी को लेकर भी पार्टी के अंदर जिस आचरण को लेकर मतभेद था वो कम होने के बजाय बढ़ने लगा फिर विजेन्द्र यादव जैसे नेता पहले से ही खफा थे बाद में ललन सिंह से भी दूरियां बढ़ने लगी इस बीच जैसे ही उपेंद्र कुशवाहा के वापसी कि बात होने लगी आरसीपी ने आनन फानन जंदाहा से पार्टी के पूर्व विधायक उमेश कुशवाहा को पार्टी का प्रदेश अध्यक्ष बना दिया जिससे उपेंद्र कुशवाहा का छत्तीस का आंकड़ा है ।
4–उपेंद्र कुशवाहा के सहारे नीतीश बीजेपी और आरसीपी दोनों को साधना चाह रहे हैं
उपेंद्र कुशवाहा बागी तेवर के हमेशा रहे हैं 2013 में जब नीतीश कुमार का ग्राफ चरम पर था उस समय कुशवाहा नीतीश कुमार पर पार्टी के अंदर लोकतंत्र नहीं होने की बात करते हुए साथ पार्टी ही नहीं छोड़ा राज्यसभा से भी त्यागपत्र दे दिया था फिर 2014 में मोदी के साथ आये लोकसभा का चुनाव जीता मंत्री बने फिर बीच में छोड़ कर राजद के साथ आ गये फिर बुरी तरह से चुनाव हारे लेकिन कुशवाहा वोटर इनके साथ अभी भी है यह एहसास कराने में कामयाब होते रहे।
आज नीतीश कुमार का ना तो वो ग्राफ है ना ही वो राजनीतिक हैसियत ऐसे में कुशवाहा को साथ लाने का खतरा नीतीश क्यों उठाये हैं ये एक बड़ा सवाल है, क्यों कि नीतीश को पता है कि उपेंद्र कुशवाहा के आने से आरसीपी नाराज होंगे और कल मिलन समारोह में शामिल ना हो कर अपनी नाराजगी जाहिर भी कर दिया।
राजनीति के जानकार का कहना हैं कि नीतीश कुमार की बस एक ही इच्छा है कि राजनीति से उनकी विदाई शानदार तरीके से हो और इसके लिए बिहार की राजनीति में नीतीश की पकड़ बनी रहे ये जरुरी है,क्यों कि राजद अब किसी भी स्थिति में नीतीश कुमार को स्वीकार करने को तैयार नहीं है ऐसे में इनके पास बीजेपी के अलावे कोई दूसरा विकल्प नहीं बचा है वही 2005 के बाद इन्होंने सुशासन और विकास के नारे के सहारे अति पिछड़ा ,मुसलमान ,सवर्ण कुशवाहा और कुर्मी वोटर को अपने साथ बनाए रखा लेकिन 2020 आते आते अति पिछड़ा का थोड़ा हिस्सा और कुर्मी कुशवाहा को छोड़ कर अधिकांश वोटर इनका साथ छोड़ दिये।
सवर्ण की वापसी संभव नहीं है,मुसलमान को इन पर भरोसा नहीं रहा अतिपिछड़ा भी 50 प्रतिशत वोटर बीजेपी और राजद के साथ हो चला गया है ऐसे में नीतीश अपनी हैसियत को बचाये रखने के लिए उपेंद्र कुशवाहा का सहारा लिये हैं ताकि उनका पुराना वोट बैंक कुर्मी कुशवाहा को मजबूती के साथ जुड़ जाये।
लेकिन इसमें सबसे बड़ा खतरा आरसीपी फैक्टर है क्यों कि उन्हें साधने के चक्कर में आरसीपी एक और शरद यादव ना बन जाये इसका खतरा ज्यादा है क्यों कि आरसीपी के साथ बीजेपी अभी भी खड़ी है । ऐसे में नीतीश कुमार की वापसी बहुत ही मुश्किल है लेकिन नीतीश कुमार की एक खासियत भी है वो इंतज़ार करते हैं सही समय का चाहे इसके लिए बहुत कुछ दांव पर क्यों ना लग जाये वैसे उपेंद्र कुशवाहा को ला कर भले ही नीतीश बिहार की राजनीति में हलचल पैदा कर दिया है।
लेकिन इस वापसी के साथ ही चिराग के साथ साथ जदयू के कई ऐसे नेता जो पिछले चुनाव में एलजेपी के कारण चुनाव हार गये थे वो बीजेपी का दामन थाम ले तो कोई बड़ी बात नहीं होगी।