
न्यूज़ टुडे टीम अपडेट : मोतिहारी/ बिहार :
प्रशांत किशोर आखिर कहाँ हैं? बिहार चुनाव पर तमाम अटकलें चलती रहती हैं। अधिकतर चुनावी विश्लेषक और डाटा NDA के पक्ष में हैं। नीतीश के ख़िलाफ़ रोष अथवा आपत्तियों के बावजूद दूसरा कोई विकल्प नहीं नजर आता। राजद की पुरानी सरकार का पुराना चिट्ठा नीतीश निकालते ही रहते हैं, और लोगों को भी स्मरण है। लेकिन, आधुनिक चुनाव में जनता भी कठपुतली बन जाती है। अब इसमें चुनाव रणनीतिकार और सूचना-सेनानियों के आने से मसला अलग हो गया है। प्रशांत किशोर पिछले कई चुनावों में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं, लेकिन आश्चर्यजनक रूप से बिहार से गायब हैं, जो उनका अपना राज्य है और जहाँ से वह पिछला चुनाव जितवा चुके हैं।
फिर भी अगर उनको ढूँढा जाए। प्रशांत का ट्रेडमार्क है डेटा, डेटा और डेटा। आप किसी भी चुनाव में अगर संख्याओं और प्रतिशत की बात अधिक देखें, तो उनको सूँघा जा सकता है। मैं राजद के सोशल मीडिया से कैम्पेन से गुजर रहा था, उसमें डेटा प्रचुर है। तमाम सर्वे से निकले हुए डेटा। प्रशांत के पुराने सहयोगी रहे शाश्वत गौतम पहले से कांग्रेस के साथ हैं। संभव है कि उनकी तरफ से आ रहा हो।
वहीं, भाजपा का दावा है कि लोजपा को NDA से बाहर करने और नीतीश के ख़िलाफ़ खड़ा करने के पीछे प्रशांत किशोर हैं। यह दावा अगर थोड़ा-बहुत भी सच है, तो खेल बड़ा हो जाता है। प्रशांत जद (यू) के साथ तो नहीं ही हैं, और भाजपा अगर उनका नाम ले रही है, तो उनके साथ भी नहीं हैं। अपने एक साक्षात्कार में वह बिहार की पिछली जीत का क्रेडिट लालू यादव के करिश्मा को दे चुके हैं। उनसे निकटता तो रही ही, और उनके अलग होने के बाद प्रशांत भी अलग हू हो गये।
लोजपा बिहार के वोट-पोलिटिक्स में कमजोर है, लेकिन जद (यू) का वोट काट सकती है। सीट भले न जीते, पर वोट काटेगी ही। उनका मुख्य नारा भी ‘नीतीश की खैर नहीं’ है (तेजस्वी की खैर है?)। खड़ी भी उन्हीं सीटों पर हैं, जहाँ नीतीश। अगर इस वोटकटवा को भाजपा के अनुसार प्रशांत किशोर ने बिठाया है, तो पूरा खेल हमारे सामने है। नीतीश के पास पचास प्रतिशत सीटें हैं। वह हारे तो भाजपा कहीं की नहीं रहेगी। किसी भी सर्वे के हिसाब से। नीतीश का जीतना भाजपा के लिए जरूरी है ही। लेकिन, पिक्चर शायद अभी बाकी रहेगी, जब तक कोई भेदिया पीके को ढूँढ न ले।
